विख्यात कवि ने ‘जन-विरोधी सरकार’ से पाकिस्तान का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार लेने से मना किया

विख्यात कवि ने ‘जन-विरोधी सरकार’ से पाकिस्तान का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार लेने से मना किया

इस्लामाबाद : प्रसिद्ध सरायकी कवि और लेखक आशु लाल ने पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स (पीएएल), द्वारा घोषित 10 लाख पीकेआर की पुरस्कार राशि के साथ पाकिस्तान के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार कमाल-ए-फन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। पाकिस्तानी अखबार डॉन की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।

उन्हें पीएएल की एक समिति द्वारा पुरस्कार के लिए चुना गया था और इस संबंध में अकादमी के अध्यक्ष डॉ. यूसुफ खुश्क द्वारा एक संवाददाता सम्मेलन में घोषणा की गई थी।

उर्दू उपन्यासकार और यात्रा वृतांत लेखक मुस्तानसर हुसैन तरार अन्य ऐसे लेखक हैं, जिन्हें आशु लाल के अलावा देश का सर्वोच्च पुरस्कार मिला है।

पुरस्कार की घोषणा के बाद, आशु लाल ने सोशल मीडिया पर सरायकी में किए गए एक पोस्ट में पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार करने की घोषणा की।

उन्होंने कहा, “मैं दोस्तों का आभार व्यक्त करता हूं। मैं पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार करता हूं। मैंने अपनी कोई भी पुस्तक अकादमी ऑफ लेटर्स को नहीं भेजी है। मेरी राय में, मेरा इनकार (पुरस्कार स्वीकार करने के लिए) अधिक कीमती है। पिछले 40 वर्षों से मेरी साहित्यिक सक्रियता ही मेरा पुरस्कार (एक लेखक के रूप में) है। मैं कोष्ठक (ब्रैकेट्स) में नहीं रहना चाहता। धन्यवाद।”

उन्होंने कहा, “सरकार मूल निवासियों, हमारे संसाधनों और हमारी संस्कृति पर अत्याचार कर रही है। हमारे बच्चे फासीवादी शासन के तहत लापता (जबरन गायब) हो जाते हैं। मूल निवासियों को बुरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है। हम एक जन-विरोधी और कला-विरोधी सरकार से पुरस्कार कैसे स्वीकार कर सकते हैं?”

उनका कहना है कि पुरस्कार ज्यादातर राजनीति से प्रेरित हैं और वे विवादास्पद हो गए हैं और ये केवल फोटो सत्र तक ही सीमित हैं।

कवि ने जोर देकर कहा कि उनका सरकार, साहित्य या संस्कृति की गहरी स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है और वर्तमान शासन में एक ऐसे राष्ट्रपति से एक पुरस्कार स्वीकार करना अपने लिए अपमानजनक मानते हैं, जो उन्हें जानते भी नहीं है।

13 अप्रैल, 1959 को जन्मे कवि का नाम मुहम्मद अशरफ रखा गया था, लेकिन उन्होंने ‘आशु लाल’ नाम अपनाया, जो उनकी मां ने उन्हें दिया था, जब उन्होंने सरायकी भाषा में लिखना शुरू किया था।

वह पेशे से डॉक्टर हैं। कायद-ए-आजम मेडिकल कॉलेज, बहावलपुर से एमबीबीएस पूरा करने के बाद, उन्होंने पूरे क्षेत्र में एक डॉक्टर के रूप में काम किया। उन्होंने कई बार ऐसी जगहों पर काम किया जहां कोई डॉक्टर नहीं जाना चाहता था।

डॉन ने बताया कि वह दो साल पहले अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए थे। तब से वह लय्या जिले के करोर लाल एसन तहसील में एक क्लिनिक चलाते हैं, जहां गरीबों के लिए इलाज मुफ्त है।

रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने आगे सवाल पूछते हुए कहा, “मैं 62 साल का हूं। अपनी युवावस्था से, मैंने केवल साहित्यिक सक्रियता में विश्वास किया है। वर्तमान शोषक शासन से एक पुरस्कार स्वीकार करके, मैं सरायकी और उर्दू में लेखन के 45 वर्षों के अपने संघर्ष को कैसे बर्बाद कर सकता हूं?”

पुरस्कार के लिए पीएएल को कोई किताब भेजने के बारे में पूछे जाने पर आशु ने कहा कि उनके दोस्त ने 1997 में अपनी ही ओर से एक किताब भेजी थी और सिवाय इसके उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर कभी भी अकादमी को कोई किताब नहीं भेजी।

उन्होंने आगे कहा, “मैं किसी भी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के खिलाफ नहीं हूं। मैं पंजाबी भाषी लोगों से स्कूलों में पंजाबी माध्यम अपनाने का आग्रह करता हूं।”

उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा कि लोगों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं देने की सरकार की नीति उन्हें पिछड़ा रखने का एक हथकंडा है।

उनका कहना है कि वह बुल्ले शाह और कबीर के प्रतिरोध का अनुसरण कर रहे हैं।

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