‘वैक्सीन भेदभाव’ से पश्चिम का सार दिखता है!

‘वैक्सीन भेदभाव’ से पश्चिम का सार दिखता है!

बीजिंग, | भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 जुलाई को कहा कि भारत सभी देशों के लिए अपना न्यू कोरोना वायरस टीकाकरण मंच खोलने के लिए तैयार है। यह निर्णय घोषित करते हुए प्रधान मंत्री मोदी ने कहा, “कोई भी देश कोविड-19 की चुनौती को अलगाव में हल नहीं कर सकता है। अनुभव बताता है कि कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, कोई भी देश अलगाव में ऐसी चुनौती का समाधान नहीं कर सकता।” प्रधान मंत्री मोदी का उपरोक्त बयान यूरोपीय संघ द्वारा भारत के टीकों को ‘न्यू कोरोना डिजिटल ट्रैवल सर्टिफिकेट’ से बाहर रखे जाने के बाद किया गया है। भारत के उक्त निर्णय का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में स्वागत किया गया है। आज मानव साझा भविष्य के एक ही समुदाय में रहता है। कोविड-19 निमोनिया जैसे अंतरराष्ट्रीय संकट के खिलाफ लड़ाई में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एकजुटता और सहयोग के सिद्धांतों को कायम रखना चाहिए। अपने छोटे दायरे में रहकर दूसरों को बाहर करना उचित नहीं है। लेकिन अमेरिका और पश्चिम ने न केवल विकासशील देशों पर वैक्सीन प्रौद्योगिकी नाकाबंदी लगाई है, बल्कि भारत, चीन और रूस में उत्पादित टीकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण प्रथाओं को भी अपनाया। जिससे पश्चिम का स्वार्थी और दबंग स्वभाव दिखता है।

यूरोपीय संघ द्वारा हाल ही में लॉन्च किया गया ‘न्यू कोरोना डिजिटल ट्रैवल सर्टिफिकेट’ वास्तव में एक ‘वैक्सीन पासपोर्ट’ है। जिसके मुताबिक यूरोपीय संघ केवल उन यात्रियों को प्रवेश करने की अनुमति देता है, जिन्होंने पश्चिमी टीके लगवाये हैं। लेकिन इस की सूची में न केवल चीन और रूस में उत्पादित टीकों को मान्यता नहीं है, बल्कि भारत में उत्पादित एस्ट्राजेनेका वैक्सीन को भी मान्यता नहीं है। यूरोपीय संघ के इस कदम से निस्संदेह भारत के टीकों के खिलाफ भेदभाव दिखाया गया है। वास्तव में, भारतीय वैक्सीन को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और एस्ट्राजेनेका द्वारा संयुक्त रूप से विकसित, और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित किया गया है। उधर कई विशेषज्ञों ने इस बात की पुष्टि की है कि भारत में बनने वाली वैक्सीन यूके में बनने वाले एस्ट्राजेनेका वैक्सीन के समान ही है। वर्तमान में, यूरोपीय संघ ने यूरोप और अमेरिका में उत्पादित केवल चार टीकों को मंजूरी दी है, अर्थात फाइजर वैक्सीन, मोडर्ना वैक्सीन, ब्रिटिश एस्ट्राजेनेका वैक्सीन और जॉनसन एंड जॉनसन वैक्सीन। अन्य देशों के सभी टीकों को बाहर रखा गया है।

हालांकि भारत ने पश्चिमी वैक्सीन भेदभाव के खिलाफ प्रतिवाद किया है, लेकिन भारत के खिलाफ पश्चिमी देशों का भेदभाव खत्म नहीं होगा। यह निष्कर्ष निकलता है कि पश्चिम भारत का स्वाभाविक सहयोगी नहीं है। खबर है कि महामारी के खिलाफ लड़ाई जैसे मुद्दों पर रूस के साथ और सहयोग पर चर्चा करने के लिए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर इस हफ्ते मॉस्को जाएंगे। उधर रूसी पक्ष ने भी खुलासा किया कि वह पश्चिमी नाकेबंदी का मुकाबला करने के लिए ब्रिक्स देशों पर निर्भर करेगा। इसके अलावा, विश्व स्वास्थ्य संगठन और इसकी ‘न्यू कोरोनरी न्यूमोनिया वैक्सीन इम्प्लीमेंटेशन प्लान’ ने 1 जुलाई को एक संयुक्त बयान जारी कर सभी देशों से डब्ल्यूएचओ की मान्यता प्राप्त सभी वैक्सीन के लिए खोलने का आग्रह किया। उधर अफ्रीकी संघ के विशेष दूत, जो अफ्रीका के लिए टीके खरीदने के लिए जिम्मेदार हैं, 1 जुलाई को कहा कि अब यूरोप के द्वारा अफ्रीका में कोई भी टीका नहीं भेजा जा रहा है। वर्तमान में अफ्रीकी देशों में लगवाये गये अधिकांश टीके चीन उत्पादित हैं।

चीन के विदेश प्रवक्ता ने हाल ही में कहा कि चीन ने लगभग 100 देशों को 48 करोड़ खुराक टीकों की आपूर्ति की है, चीन दुनिया में सबसे अधिक टीके उपलब्ध कराने वाला देश बन गया है। विशेषज्ञों के अनुसार, डब्ल्यूएचओ ने भारतीय और चीनी टीकों समेत कुल 8 टीकों को मान्यता देने की घोषणा की, जो यह दर्शाता है कि ये सभी टीके नए कोरोनावायरस से लड़ने में प्रभावी हैं। उधर भारत, चीन और रूस द्वारा उत्पादित टीकों को मान्यता देने के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों का इनकार किसी वैज्ञानिक निर्णय नहीं, बल्कि भेदभाव की राजनीतिक भावना पर आधारित है। मौजूदा हालात में सभी देशों के लोगों को जल्द से जल्द टीका लगवाने की सर्वोच्च प्राथमिकता है। भारत, चीन और रूस द्वारा उत्पादित टीकों को पर्याप्त गुणवत्ता और कम कीमतों के फायदे हैं। विकासशील देशों के लिए इन तीन देशों के टीकों का चयन करने से उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा हो सकता है। जबकि पश्चिम को इसके प्रति भेदभावपूर्ण रवैया नहीं अपनाना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

English Website