सत्तापक्ष व विपक्ष समझे मतदाता की चेतावनी

विश्वनाथ सचदेव

अठारहवीं लोकसभा का अधिवेशन प्रारंभ हो गया है। संसद में सरकार की नीति और नीयत को लेकर बहस शुरू हो चुकी है। लेकिन फिर सरकार और विपक्ष दोनों संविधान की रक्षा की दुहाई देकर आमने-सामने हैं। सदन के बाहर विपक्ष के सांसद संविधान की रक्षा के नारे लगा रहे थे और भीतर सत्तारूढ़ पक्ष भी यही बात कह रहा था। बात दोनों एक ही कर रहे थे, पर संदर्भ अलग-अलग थे। ऐसे में एक सामान्य नागरिक का असमंजस समझ में आने वाली बात है। आखिर संविधान की रक्षा का मतलब क्या है?

मतलब यह है कि जिन मूल्यों और आदर्शों को आधार बनाकर संविधान की रचना की गयी थी, सांसद पूरी ईमानदारी के साथ उनका पालन करें। यह तो आने वाला कल ही बतायेगा कि हमारे राजनेता कितनी ईमानदारी के साथ यह काम करते हैं, लेकिन संसद के इस अधिवेशन का आगाज बता रहा है कि अंजाम कुछ हल्लेदार ही होगा। शुरुआत प्रधानमंत्री ने कर ही दी है। सत्र प्रारंभ होने से पहले मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने दो-तीन ऐसी बातें कही हैं जिनकी तीव्र प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। मसलन, उन्होंने यह दोहराना ज़रूरी समझा कि मतदाता ने उनकी पिछली सरकार की नीति और नीयत में विश्वास प्रकट करके ही उन्हें लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का दायित्व सौंपा है।

बात यहीं से शुरू होती है। यह सही है कि लगातार तीसरी बार एनडीए की सरकार बनी है पर यह नहीं भूल जाना चाहिए कि पिछली दो पारियों में भाजपा का अपना स्पष्ट बहुमत था और सहयोगी दल भाजपा की अनुकंपा से ही सरकार का हिस्सा बन सके। इस बार स्थिति ऐसी नहीं है, भाजपा सबसे बड़ा दल ज़रूर है, पर यह मिली-जुली सरकार बैसाखियों के सहारे राज करेगी। इसलिए प्रधानमंत्री को अपनी छवि बनाए रखने के लिए समझौतावादी दृष्टिकोण के साथ काम करना होगा— यह रुख विपक्ष के प्रति ही नहीं, अपने सहयोगी दलों के प्रति भी अपनाना होगा। चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी (टीडीपी) और नीतीश की जेडीयू कब क्या रुख अपना ले, कहा नहीं जा सकता। यह सही है कि फिलहाल इन दो दलों की भूमिका को लेकर कोई आशंका नहीं है, पर राजनीति संभावनाओं का खेल है। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि 2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने एक सार्वजनिक सभा में नायडू पर व्यंग्य करते हुए उन्हें ‘दल बदलने में और खुद के ससुर की पीठ में छुरा घोंपने में सीनियर’ बताया था और इसके कुछ ही अर्सा बाद टीडीपी के नेता नायडू ने यह कहकर जैसे बदला चुकाया था कि ‘मैं पहला आदमी था जिसने 2002 के दंगों के बाद उनसे (मोदी से) इस्तीफा मांगा था’। तब चंद्रबाबू नायडू ने मोदी जी को अतिवादी तक कह दिया था।

राजनीतिक स्वार्थ के चलते हमारे नेता ऐसी बातों को भुला देने का नाटक अच्छी तरह कर लेते हैं, पर राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता।

बहरहाल, संसद का सत्र प्रारंभ होने से पहले प्रधानमंत्री ने मीडिया के समक्ष दो-तीन ऐसी बातें की हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जाना चाहिए। मसलन, प्रधानमंत्री का यह कहना कि जनता सदन में तमाशा नहीं देखना चाहती, हो-हल्ला भी नहीं, विपक्ष के निशाने पर रहेगा। मज़बूत विपक्ष लोकतंत्र को मज़बूत बनाता है, और इस बार लोकसभा में विपक्ष पिछली बार की तरह इतना कमज़ोर नहीं है कि सरकार उसे हल्के में ले सके। यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बनारस के मतदाता ने इस बार प्रधानमंत्री को उतना समर्थन नहीं दिया है जितना पिछली दो बार उन्हें मिला था। ऐसे में, भले ही प्रधानमंत्री अपनी दबंग नेता वाली छवि को बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं, पर वस्तुस्थिति यह है कि अब वह पहले जितने कद्दावर नेता नहीं रहे। स्पष्ट है, पिछली दो बार की तरह वे अब मनमानी नहीं कर पाएंगे। स्थिति यह है कि एक ओर तो विपक्ष जो अब पहले से कहीं अधिक बलशाली है, और अधिक आक्रामक हो सकता है। दूसरी ओर भाजपा के भीतर भी ऐसी स्थितियां पनप सकती हैं जो प्रधानमंत्री को कमज़ोर बना दें। इस संदर्भ में भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व के बदले तेवरों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

भाजपा के नेतृत्व को यह भी समझना होगा कि चुनाव में इस बार पहले जैसी सफलता का न मिलना यह भी बताता है कि उसका जन-समर्थन कम हुआ है। बात सत्ता विरोधी रुख तक सीमित नहीं है। यह एक चेतावनी है भाजपा के लिए, विशेषकर प्रधानमंत्री के लिए कि उनकी शासन-व्यवस्था में खामियां थीं। महंगाई और बेरोज़गारी जैसे बुनियादी सवालों को पिछली सरकार ने उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितनी गंभीरता से लेना चाहिए था। यह बात भाजपा के नेतृत्व को समझनी होगी कि मतदाता को जेब में रखने वाली सोच कभी सही नहीं हो सकती। मुफ्त अनाज और नकद सहायता जैसे कदम मतदाता को सीमित रूप से ही प्रभावित करते हैं। भरोसा नहीं जगाते सरकार के प्रति।

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