गुरबचन जगत
(मणिपुर के पूर्व राज्यपाल)
कुछ दिन पहले मैं किताबों की दुकान पर यह देखने गया कि नया क्या आया है। मैंने कुछ किताबें चुनीं और बाहर निकलने ही वाला था कि एक युवा महिला कहने लगी कि वह मुझ से कुछ बात करना चाहती है। मैं उसे और दिल्ली में उसके परिवार को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। वह काफी उद्वेलित लग रही थी और उसने सीधे मुझसे सवाल दागा कि लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत के पंजाब के भविष्य को लेकर क्या मायने हैं। मैंने उसका डर दूर करने की कोशिश की, लेकिन पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाया। किताबों की दुकान जैसे सौम्य माहौल में हुई इस दोस्ताना बहस ने मुझे हिला दिया और अचानक शुरू हुए इस संवाद से पैदा हुई विचार प्रक्रिया को मैंने झटकने का प्रयास किया। मैं घर पहुंचा, तभी रिश्ते में अग्रज लगते भाई का फोन आया, जो सेना में ऊंचे ओहदे से एक सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और इन दिनों पंजाब में बसे हुए हैं। उन्होंने भी पूछा कि पंजाब में क्या चल रहा है। मैंने उन्हें भी नरमी भरी बातों से इस चिंता से निकालने की कोशिश की और सुझाव दिया कि वे और उनकी पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आएं। अगले कुछ दिनों तक मुझे पंजाब से रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों की अनेक फोन कॉल्स आईं, सब एक जैसे सवाल पूछ रहे थे, आधी गंभीरता, आधे उत्साह युक्त। पंजाब में एक दशक तक चली हिंसा की सुनामी के वक्त भी, सतह के नीचे, चिंता की तरंगें थीं। तो क्या गुजरा अतीत, वर्तमान और भविष्य बनने जा रहा है?
हिंसा की उस कहानी को पकने में कई साल लगे थे और मैं उनमें एक हूं जिन्होंने अपनी आंखों से इसे आगाज़ से अंत तक घटित होते देखा। आम धारणा के विपरीत, अंतिम काली छाया तक पहुंचने से पहले, इसने विकसित होने में कई साल लिए थे और इस बुरी कहानी के नाटकीय पात्र सर्वविदित हैं। शतरंज की बिसात पर मोहरे चलाने वाली राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों के बारे में भी सबको पता है, लेकिन ग्रीक कहानियों में त्रासदी की नियति की भांति हम भविष्य के वक्त की चाल को देख तो सकते हैं लेकिन दखल देकर उसकी धारा को मोड़ नहीं दे सकते और त्रासदी है कि वह अपनी राह पर चलते हुए, रक्तरंजित अंजाम को पा जाती है। यह सब बहुत पहले की बात नहीं है और जनता की याद्दाश्त वैसे भी कमज़ोर होती है… तो क्या हम फिर पुनरावृत्ति की राह पर हैं? मैं यह तो नहीं कहना चाहूंगा लेकिन फिर सरकार चुप क्यों हैं? राजनीतिक दल क्यों चुप्पी साधे हुए हैं? मीडिया किसलिए मूक है और सिविल सोसायटी भी चुप क्यों हैं? कहां से आये हैं ये दो लोग और किस प्रकार संसद के सदस्य तक चुन लिए गये हैं? यही वक्त है ऐसे सवाल पूछने का और यही समय है जब सरकार और राजनीतिक दल इनके जवाब दें। आज की तारीख में लगता है राजनीतिक दलों का एक ही ध्येय है – संसद, विधानसभा, नगर निकाय और पंचायत के चुनाव लड़ना और जीत पाना। उनकी एकमात्र इच्छा सभी स्तरों पर ताकत हासिल करना है, बगैर किसी जवाबदेही के। सरकार को अब तक पता होना चाहिए था कि लोग चिंतित हैं, पंजाब में क्या हुआ, इन चुनावी नतीज़ों की व्याख्या करने को उसे मूल कारण तक गहरे उतरना चाहिए, यहां तक कि कंगना रनौत थप्पड़ कांड में भी।