भगवत शरण माथुर … एक विराट और संवेदनशील व्यक्तित्व

भगवत शरण माथुर … एक विराट और संवेदनशील व्यक्तित्व

— स्मृति शेष —
— योगेंद्र चतुर्वेदी

मंगलवार रात्रि 9 बजे जब मोबाइल पर भाईसाहब की परलोक सिधारने की खबर आयी तो विश्वास ही नहीं हुया। तत्काल हॉस्पिटल की ओर भागा, पहुंचा तो डॉक्टर का जवाब सुनकर कि हम माथुर साहब को नहीं बचा पाये, उनको गंभीर हार्ट अटैक था। अब इस बात पर विश्वास करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा था। अब सच का सामना करने की हिम्मत जुटाना और उनकी स्मृतियों के साथ जीना और कोई रास्ता ही नहीं बचा था। वे मुझसे उम्र में बड़े थे पर कभी भी योगेन्द्र जी के अलावा किसी और तरीके से नहीं पुकारा। इतने सहज और संवेदनशील व्यक्तित्व कि रिश्तों को सम्माजनक तरीकों से बनाकर रखना। मुझ जैसे कई लोगों को संघ परिवार की विचारधारा से जोड़ना शायद जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य था और वे बखूबी इसको पूरा करते थे। हमेशा बड़े भाई का दायित्व निभाते हुए परिवार का हाल-चाल पूछना और हरसम्भव मार्गदर्शन करना उनको बहुत संतोष देता था। मेरे जीवन में कभी-कभी कुछ संकट के पल भी आये, उस समय भी वे एक स्तम्भ के तौर पर मेरे साथ खड़े रहे। उनका स्नेह और लाड़ इतना अधिक था कि कभी-कभी कई व्यक्तिगत मुद्दों पर हमारी बहस बिल्कुल पिता और पुत्र जैसी होती थी। हमारी बहस उनके पितातुल्य स्नेह से हमेशा उनकी बात मानकर ही खत्म होती थी ।
हम पत्रकारिता से जुड़े लोगों का मिलना-जुलना हमेशा से ही राजनीति से जुड़े लोगों से होता रहता है। पर कभी नहीं सोचा था कि जीवन में माथुर जी जैसे व्यक्तित्व भी आएंगे और पारिवारिक जीवन का एक हिस्सा बन जाएंगे पर कहते हंै ना कि एक परिवार माता और पिता से मिलता है और एक प्रभु की इच्छा से। माथुर जी मेरे जीवन में प्रभु की आज्ञा से परिवार के हिस्से बन गये। शनिवार को ही उनका फोन आया हालचाल पूछा और गाजर के हलवा खाने की इच्छा जाहिर की। इतवार को ही हम दोनों देर शाम तक बैठे और मेरी पत्नी के हाथ का बना हुया गाजर का हलवा का आनंद लिया। अच्छे खाने के शौकीन थे माथुर जी। इस दौरान ये कभी सोचा ही नहीं कि एक दिन बाद ही बैठक का सिलसिला हमेशा के लिये खत्म हो जायेगा। मुझे आज भी याद है जब कई वर्षों पहले संघ परिवार के एक व्यक्ति मुझसे बोले कि भाईसाहब चलिये आज आपको एक संत से मिलवाता हूं तो मैंं जिज्ञासावस उनके साथ चला गया और जब उन्होंने माथुर जी से मिलवाया तो मैं मन ही मन उनको कोस रहा था कि ये संत बोलकर ले आया। ये तो राजनीतिक व्यक्ति निकले पर जब हमारी मुलाकात खत्म हुयी तो मेरी धारणा बदल चुकी थी। वाकई में माथुर जी एक संत ही थे।
वर्षों की मुलाकातों का ये सिलसिला चलता रहा और माथुर जी से पारिवारिक रिश्ता बन गया, जिसमें एक हक उनका मेरे ऊपर बन गया और मेरा उनके ऊपर। एक समय आया जब हम दोनों को लगातार दो माह तक एक साथ रहने का मौका मिला। मुंबई शहर में जब उनको स्वास्थ्य लाभ के लिये मेरे पास रहना हुया, वो मेरे जीवन का बहुत अदभुत समय था। उनके सानिध्य से मेरे जीवन में जो बेहतर बदलाव आये, उसने मेरे जीवन को एक नयी और बेहतर दिशा दी। इस मुंबई प्रवास में माथुर जी स्वास्थ्य लाभ लेने आये थे पर योग्य लोगों को पार्टी के साथ जोड़ने का उनका काम निरंतर चलता रहा। इसी क्रम में जब मेरे एक मित्र उनका हाल-चाल लेने आये तो कुछ समय की मुलाकात में ही मन परिवर्तित कर दिया, जबकि मेरे मित्र पिछले 30 वर्षों से एक राजनीतिक दल में उच्च पदों पर रहे। इस समय माथुर जी ने पहनायी गयी फूलमाला वापस मित्र के गले में डालते हुए उनको अपने परिवार में शामिल कर लिया। ये मित्र वर्तमान में मुंबई उत्तर भारतीय मोर्चा भाजपा के अध्यक्ष हंै और बखूबी अपनी जिम्मेदार को निभा रहे हैं। इस तरह की पारखी नजरें थीं माथुर जी की। सही व्यक्ति का चयन करके परिवार में जोड़ने का काम निरंतर चलता रहा।
भाईसाहब मुंबई से उपचार कराकर वापस आ गये पर अब हम दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया। हम दोनों जब अलग-अलग शहर में होते थे तो नियमित फोन पर बातचीत दैनिक जीवन का एक हिस्सा बन गया। कुछ समय बाद भाईसाहब ने मुझे सलाह दी कि आपका अखबार अब दिल्ली से भी आना चाहिये। उनकी इच्छा के अनुसार देश की राजधानी में एब्सल्यूट इंडिया का अंग्रेजी संस्करण दिल्ली से शुरू किया गया। माथुर जी ने खुद उपस्थित रहकर मेरा उत्साहवर्धन किया। इस लेख में दिया गया फोटो उस दिन का है, जब उन्होंने मुझे पुष्प देकर शुभकामनाएं दीं। इस समय माथुर जी के सहयोगी रामलाल जी, जो उस समय राष्ट्रीय संगठन मंत्री थे ने भी इस कार्य में मुझे व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन दिया। माथुर जी का अपनापन इतना था कि मुझे सहयोग मिले और एब्सल्यूट इंडिया को उचित स्थान मिले, उसके लिये वे खुद अखबार की प्रतियां अपने साथ लेकर दिल्ली में संघ परिवार के राष्ट्रीय वर्ग में पहुंचे। उन्होंने वहां संघ परिवार के पूजनीय सहित सभी सम्मानितों को अपने हाथ से अखबार की प्रतियां दीं और सभी को बताया कि ये अपने परिवार का ही अखबार है। इस तरह से वे समय- समय पर मेरा उत्साहवर्धन करते रहे। जब भी किसी विशेष व्यक्ति से मिलने जाते थे तो उनका मन होता था कि मैं भी साथ चलूं और मैं टालता रहता था कि भाईसाहब आप जाओ ना, मैं क्या करूंगा परन्तु उनकी इच्छा होती थी कि मैं भी उनके साथ चलूं। मुझे याद है कि एक बार दिल्ली में उनको राष्ट्रपति जी से मिलना था और श्रद्धेय को श्री कुशाभाई ठाकरे जी के जीवन पर लिखी का विमोचन करना था तो मुझे भी साथ चलने को कहा। मैं उस दिन चाहकर भी समय पर नहीं पहुंच पाया क्योंकि मेरी मुम्बई से फ़्लाइट लेट हो गयी। इस पर उन्होंने बस थोड़ा सा प्यार से डाँटा, इसके बाद खाना खाया। हमेशा की तरह परिवार का हाल-चाल पूछना और चिंता करना, यही सरलता थी उनकी।
दिल्ली में एक दिन भोजन करते हुए पता नहीं कैसे उनको लगा कि मैं कुछ परेशान दिख रहा हूं और लगे मुझसे पूछने कि बताओ क्या बात है? आज तुम सहज नहीं दिख रहे और जब तक जान नहीं लिया, नहीं माने। माथुर जी ने मेरी समस्या को अगले ही दिन अपने प्रयास से सामान्य बना दिया। इस तरह से वो अपनों का ध्यान रखते थे। लोगों की समस्या भी वो अपनी मानकर निराकरण कर देते थे और सामने वाले को पता भी नहीं चलने देते थे। इसके कुछ समय बाद वे दिल्ली में ही पार्टी कार्यालय में निवास के बाहर टहलते हुए गिर गए। उनके कूल्हे की सर्जरी हुई। खबर पाते ही मैं अगली सुबह की फ़्लाइट से मुंबई से दिल्ली पहुंचा, तब तक आॅपरेशन हो चुका था। भाईसाहब आईसीयू में आ गये थे। मुझे देखकर मेरा हाथ पकड़कर भावुक हो गये। पहली बार इतने मजबूत व्यक्ति की आँखों में आंसू देखे तो मैं व्यथित हो गया, परन्तु हिम्मत के साथ उनको बोला कि भाईसाहब ये तो छोटा सा आॅपरेशन है। आप जल्दी ठीक हो जाएंगे। आप फिर से चलने लगेंगे परन्तु उनकी हिम्मत थोड़ी कमजोर हो गई और उनको अब ये एहसास हो गया कि अब अपने पैरों पर चल कर अधिक काम नहीं कर पाएंगे। पर उनका आत्मविश्वास इतना मजबूत था कि अमरकंटक हो या भोपाल, जहां भी उन्होंने प्रवास किया वहां पार्टी की विचारधारा को विस्तार देने का काम निरंतर चलता रहा।
अभी कुछ समय पूर्व जब आदरणीय सुरेश सोनी जी की माताजी के देहांत के बाद उनके साथ राजगढ़ की यात्रा करने का मौका मिला तो पूरे समय राजगढ़ के बारे में और उनकी राजगढ़ से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात को बताते रहे। वहां से जुड़े लोगों के किस्से भी खूब सुनाये। अपनी शिक्षा काल के दौरान की बातों के अलावा राजनीति और मीसा में जेल यात्रा के वृतांत … जैसे हर बात मुझे बताना चाह रहे थे। अब बहुत सी स्मृतियां हैं उनकी हमारे साथ। मंगलवार को जब उनका देहांत हुया। उनको अस्पताल में ही रखा गया। इस पूरी रात जब तक उनको अगली सुबह भाजपा कार्यालय नहीं लाया गया, उनको देखने के लिये मेरा मन व्यथित रहा। पूरी रात ढंग से सो नहीं पाया। बस उनका ही ध्यान बार-बार आता रहा। सपने में भी मुझसे बातें करते रहे बिल्कुल हमेशा की तरह। जब भी वो शिकायती लहजे में बोलते कि योगेन्द्र जी, देखो इन लोगों ने मुझे कितने ठंडे बिस्तर पर लिटा रखा है। मुझे जल्दी से यहां से हटाओ। जब नींद खुली तो मन और व्यथित। क्योंकि हकीकत में तो अब भाईसाहब हमारे बीच नहीं हैं। भाईसाहब, आपके इस तरह हमेशा के लिये हमको छोड़कर चले जाने की बात, अभी तक मन को स्वीकार नहीं हो पा रही है। पता नहीं, हर बार यही लगता है कि अभी आपका फोन आयेगा ओर बोलेंगे कि योगेन्द्र जी कहां हो? कब आ रहे हो ? मुझे पता है कि अब ये होने वाला नहीं है पर भाईसाहब आप यहां भी हैं हमारे दिल और दिमाग से कभी दूर नहीं जा पाओगे। आपके बताये हुए रास्ते पर चलना ही हमारी प्राथमिकता रहेगी। आपको शत शत नमन ।

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