पटना/लखनऊ। चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस की लड़ाई घमासान में बदल गई है। चिराग आज दिन में एक बजे एक प्रेस कांफ्रेंस करने वाले थे लेकिन अचानक उसे रद्द कर दिया गया है। उधर चाचा पशुपति कुमार पारस ने अन्य सांसदों के साथ मिलकर न केवल संसदीय दल के नेता के पद पर कब्जा कर लिया, बल्कि अब पार्टी अध्यक्ष पद पर भी कब्जा करने की कोशिश हो रही है। लेकिन लोजपा नेताओं का कहना है कि पार्टी सांसदों को अध्यक्ष बदलने का कोई अधिकार नहीं है। पार्टी संविधान के अनुसार यह ताकत केवल पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पास होती है और उसकी बैठक बुलाने का अधिकार केवल पार्टी अध्यक्ष के पास होता है। अभी तक यह पद चिराग पासवान के ही पास है। वे आत्मसमर्पण नहीं, बल्कि संघर्ष करेंगे।
पार्टी नेताओं ने साफ़ किया है कि चिराग, राम विलास पासवान के बाद लोक जनशक्ति पार्टी का चेहरा हैं और महादलित समुदाय में उनकी अच्छी स्वीकार्यता है। वे चाचा के सामने आत्मसमर्पण नहीं करेंगे, बल्कि अपने और महादलित समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे। पार्टी नेताओं को उम्मीद है कि चिराग पासवान न केवल यह रण जीतेंगे, बल्कि इसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की तैयारी भी करेंगे जिसके बारे में पहले से ही योजना बनाई जा चुकी है।
लोकजनशक्ति पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष मणिशंकर पाण्डेय ने अमर उजाला से कहा कि चिराग पासवान, केवल राम विलास पासवान के पुत्र नहीं हैं, वे बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक महादलित समुदाय के बीच एक लोकप्रिय चेहरा बन चुके हैं। अगर पशुपति कुमार पारस, वीणा सिंह या किसी अन्य को इस बात की गलतफहमी है कि वे उन्हें अध्यक्ष पद से हटाकर स्वयं पार्टी पर कब्जा कर सकते हैं तो यह दांव उन पर उल्टा पड़ेगा।
पार्टी नेताओं ने कहा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की लगभग 70 विधानसभा सीटों पर लोजपा वोटर रहते हैं। लगभग पांच से छह सीटों पर पार्टी अकेले दम पर परिणाम बदल सकती है तो बाकी की 64-65 सीटों पर किसी भी उम्मीदवार की हार-जीत का फैसला करने में अहम भूमिका निभा सकती है, इसलिए चुनाव पूर्व किसी दल से समझौता कर पार्टी चुनाव में उतरेगी।
रामविलास के सपने को ही आगे बढ़ा रहे थे चिराग
दरअसल, चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति नाथ पारस के बीच यह पूरा विवाद बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान पैदा हुआ। चिराग पासवान पार्टी को अकेले चुनाव में लड़ाने के पक्षधर थे, जबकि अन्य नेताओं का कहना था कि एनडीए खेमे में रहते हुए आगे बढ़ा जाए। चिराग के निर्णय का कोई उस समय विरोध नहीं कर सका, और पार्टी ने अपने दम पर चुनाव लड़ा। उसे इसका नुकसान हुआ और पार्टी शून्य पर सिमट कर रह गई।
लेकिन इस करारी हार के बाद भी चिराग ने लगभग सात फीसदी वोट हासिल कर यह साबित कर दिया कि बिहार के महादलित समुदाय पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। इतने वोट बैंक के बलबूते वे बिहार की राजनीति में एक प्रभावशाली दखल रखेंगे और उन्हें खारिज करना संभव नहीं होगा। पार्टी नेताओं का दावा है कि अगर पार्टी में दो फाड़ होने की परिस्थिति बनती है तो भी चिराग पासवान आत्मसमर्पण नहीं करेंगे। वे अपने दम पर रामविलास पासवान की विरासत को आगे बढ़ाएंगे। जिस तरह से बिहार की जनता में उनकी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए अपनी अगली पारी के लिए वे तैयार हैं।
दरअसल, रामविलास पासवान ने जब लोजपा की नींव रखी थी, एक समय उसके दो दर्जन से ज्यादा विधायक चुनकर आते थे। (हालांकि, बाद में पार्टी में टूट हो गई और विधायक सत्तादल से जा मिले)। इसके बाद के चुनावों में रामविलास पासवान को कभी भाजपा के साथ समझौता कर चुनाव लड़ा तो कभी जेडीयू के साथ। लेकिन इस कोशिश में रामविलास पासवान का कद तो बना रहा, लेकिन उनकी पार्टी का कद लगातार छोटा होता गया। एक समय उनकी पार्टी का कोई विधायक बिहार विधानसभा में नहीं रह गया।
महादलित समुदाय में युवा तुर्क बनकर उभरे रामविलास पासवान ने परिस्थितियों के साथ समझौता तो जरूर कर लिया, लेकिन उनके दिल में यह टीस हमेशा बनी रही कि वे पार्टी को उस ऊंचाई तक नहीं पहुंचा पाए जहां तक उसे ले जाना चाहते थे। यही कारण है कि जब 2019 में उन्होंने चिराग पासवान को पार्टी का अध्यक्ष पद सौंपा, उसी समय उन्हें पार्टी का आधार बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी।
पार्टी नेता बताते हैं कि 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा को समर्थन चिराग पासवान के कहने के बाद ही लिया गया था जसके बाद पार्टी के छह सांसद विजयी होकर लोकसभा पहुंचे थे। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में अकेले जाने का फैसला पार्टी के जनाधार को बढ़ाने की राजनीति से ही किया गया था, और यह चिराग की नासमझी नहीं, बल्कि रामविलास पासवान के सपने को जमीन पर उतारने की कोशिश ही थी।
इस चुनाव में पार्टी के शून्य पर आने की आलोचना अवश्य की जा सकती है, लेकिन इस बात से कत्तई इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी जैसे मजबूत दलों के बीच भी पार्टी ने मजबूती से अपना पांव जमाए रखा और सात फीसदी वोट हासिल करने में सफलता हासिल की।
लोजपा नेताओं को लगता है कि अगर उपेन्द्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी जैसे नेता दो फीसदी वोट बैंक से भी कम हासिल कर बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बने रह सकते हैं तो चिराग को खारिज कर पाना किसी के लिए संभव नहीं होगा। यही सोच चिराग खेमे की ताकत है और इसी के बूते वे संघर्ष कर रहे हैं।