बढ़ती जा रही है दुनिया में चीन की हैसियत, जमकर पैसा निवेश कर रहे हैं अमेरिकी

बढ़ती जा रही है दुनिया में चीन की हैसियत, जमकर पैसा निवेश कर रहे हैं अमेरिकी

लंदन। अमेरिका को पछाड़ कर चीन यूरोपियन यूनियन (ईयू) का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है। यूरोपियन यूनियन की सांख्यिकी एजेंसी- यूरोस्टैट- के जारी आंकड़ों के मुताबिक 2020 में चीन और ईयू के बीच 383.5 यूरो का कारोबार हुआ। ईयू से चीन को हुए निर्यात में 2.2 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि चीन से होने वाले आयात में 5.6 फीसदी का इजाफा हुआ। इसके पहले तक अमेरिका हमेशा से ईयू का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा था। लेकिन पिछले साल ईयू से अमेरिका को हुए निर्यात में आठ फीसदी और आयात में 13 फीसदी की गिरावट आई।

अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का कहना है कि चीन में विदेशी निवेश तेजी से बढ़ रहा है। चीन के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेशक अपना पैसा बड़े पैमाने पर लगा रहे हैं। खासकर अमेरिकी निवेशकों के लिए चीन पसंदीदा जगह बना हुआ है। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक इसकी वजह चीन का कोरोना महामारी को जल्द संभाल लेना और उसके बाद वहां की अर्थव्यवस्था में आई तेजी है। इससे निवेशकों में ये भरोसा बना है कि चीन में पैसा लगाना सुरक्षित है।

विशेषज्ञों के मुताबिक चीन के बाजारों में निवेश बढ़ने पर दुनिया भर की सरकारों को इसकी वजह से चीन की बढ़ी राजनीतिक ताकत का सामना भी करना होगा। अमेरिका के लिए ये खास चिंता की बात है, क्योंकि चीन धीरे-धीरे दुनिया पर कायम उसके वित्तीय वर्चस्व को चुनौती देने की तरफ बढ़ रहा है। अमेरिका स्थित सीफेरर कैपिटल पार्टनर्स में चीन अनुसंधान केंद्र के निदेशक निकोलस बोर्स्ट ने अमेरिकी वेबसाइट एक्सियोस.कॉम से कहा है कि चीन का मकसद अपनी मुद्रा रेनमिनबी को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाना है। उनके मुताबिक जब ज्यादा विदेशी निवेशक चीन की ऐसी कंपनियों, चीन सरकार के बॉन्ड्स और दूसरी प्रतिभूतियों में निवेश करेंगे, जहां कारोबार रेनमिनबी में होता है, तो वैसी हालत में रेनमिनबी का भंडार रखना उनकी मजबूरी बन जाएगी।

बोर्स्ट ने कहा कि वैश्विक निवेशक जितनी अधिक चीनी संपत्तियों की खरीदारी करेंगे, उनके लिए चीन की मुद्रा उतनी अहम हो जाएगी। अर्थशास्त्रियों ने ध्यान दिलाया है कि जैसे-जैसे चीन का घरेलू बाजार बढ़ा है, वहां कारोबार करने वाली एयरलाइंस कंपनियां, होटल और हॉलीवुड के कारोबार से जुड़े लोग चीन के खिलाफ बोलने से कतराने लगे हैं। अब ऐसा ही वित्तीय निवेशकों के साथ हो सकता है। अमेरिका अपने वित्तीय का इस्तेमाल दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगाने में करता रहा है। आगे चीन भी इस हैसियत में आ सकता है।

कई विशेषज्ञों ने इस तरफ ध्यान खींचा है कि चीन की राजनीतिक नीतियों से तमाम मतभेदों के बावजूद ईयू ने पिछले दिसंबर में चीन के साथ व्यापक निवेश का समझौता कर लिया। ऐसा उसने अमेरिकी मर्जी को नजरअंदाज करते हुए किया। कंपनियां नीतियों और नैतिकता के बजाय अपना फायदा देखती हैं। जानकारों का कहना है कि बड़ी कंपनियों की लॉबिंग के कारण सरकारें अकसर अपना रुख तय करती हैं। यही ईयू में हुआ है।

साल 2020 के आखिर में चीन, हांगकांग और न्यूयॉक, लंदन और सिंगापुर के स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड चीनी कंपनियों का बाजार मूल्य 17 खरब डॉलर तक पहुंच गया। इसमें से 11.7 खरब डॉलर मूल्य चीन में लिस्टेड कंपनियों का था। जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि 2020 वो साल था, जब अमेरिका के पूर्व ट्रंप प्रशासन ने अमेरिकी निवेशकों के सैन्य उत्पादन करने वाली कई चीनी कंपनियों में शेयर रखने पर रोक लगा दी थी। साथ ही अमेरिकी कांग्रेस (संसद) ने अमेरिकी शेयर बाजारों से कई चीनी कंपनियों को डी-लिस्ट करने का कानून पारित किया। लेकिन सीफेरर के आंकड़ों के मुताबिक इसी साल अमेरिकी निवेशकों ने सबसे ज्यादा निवेश चीनी कंपनियों में किया।

अमेरिकी निवेश कंपनी परवियू इन्वेस्टमेंट्स के सीईओ लिंडा झांग ने वेबसाइट एक्सियोस से कहा- ‘चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और दूसरा सबसे बड़ा पूंजी बाजार है। इसलिए ज्यादा अमेरिकी निवेशक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चीनी कंपनियों में निवेश कर रहे हैं।’ लेकिन ज्यादातर जानकारों का मानना है कि रेनमिनबी के अंतराष्ट्रीय मुद्रा बनने का रास्ता अभी बहुत लंबा है। इसकी एक वजह खुद चीन नीति है, जिसके तहत उसने अपनी मुद्रा को विदेशी मुद्राओं में पूर्ण परिवर्तनीय नहीं बनाया है।

इसके बावजूद जानकार इस बात पर सहमत हैं कि चीन की आर्थिक हैसियत तेजी से बढ़ रही है। इसीलिए ईयू जैसे अमेरिका के पुराने भरोसेमंद साझेदार अब चीन के मामले में अमेरिकी मंशा के खिलाफ जाकर फैसले ले रहे हैं।

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